उत्तराखंड में हंगामा : सुप्रीम कोर्ट ने नन्ही बच्ची के बलात्कार-हत्या मामले में मुख्य अभियुक्त को बरी किया
ब्यूरो न्यूज़ स्वतंत्र डंगरिया
पिथौरागढ़, 11 सितम्बर 2025 उत्तराखंड के हल्द्वानी में 2014 में हुई सात साल की नन्ही बच्ची की बेरहमी से हुई बलात्कार-हत्या (जिसे स्थानीय मीडिया में “लिटिल निरभया” भी कहा गया) के लंबित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को बड़ा फैसला सुनाया। उच्चतम न्यायालय की तीन-न्यायाधीशीय पीठ ने उस व्यक्ति की सजा और दोषसिद्धि को रद्द करते हुए दोनों आरोपियों (मुख्य अभियुक्त और सह-आरोपी) को बरी कर दिया।
क्या हुआ — घटना का संक्षिप्त क्रम
घटना: 2014 में पिथौरागढ़ की सात साल की बच्ची अपने परिजनों के साथ हल्द्वानी में शादी में गई थी; वहां उसका अपहरण/बलात्कार और बाद में हत्या कर दी गई थीं — यह घटना पूरे उत्तराखंड में भारी आक्रोश फैला चुकी थी।
गिरफ्तारी व सजा: मामले की जांच और मुकदमेबाजी के बाद नैनITALtrial court और बाद में उच्च न्यायालय ने अलग-अलग आरोपियों को दोषी ठहराया — एक व्यक्ति को फांसी की सजा (death penalty) हुई थी और सह-आरोपी को अलग सजा सुनाई गई थी। अभियुक्तों ने इन फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: अब सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्तों की याचिकाएं स्वीकार कर, ट्रायल और हाईकोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया — मुख्य आधार यह बताया गया कि मुकदमे में राहत देने वाले बिंदुओं (circumstantial evidence) में “पूर्ण और अविच्छिन्न कड़ी” (complete and unbroken chain of circumstances) स्थापित नहीं हुई और सबूतों में असंगतियां/कमज़ोरियाँ हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने किन कारणों से रिहा किया?
पीठ (न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता) ने निर्णायक रूप से कहा कि इस तरह के संवेदनशील और विशेषकर मृत्यु दंड से जुड़े मामलों में सबूतों की संपूर्णता और मजबूती पर उच्चतम सतर्कता अपनाई जानी चाहिए। अदालत ने पाया कि-
साक्ष्य में अनियमितताएँ और असंगतियाँ थीं — उदाहरण के तौर पर डीएनए/वैज्ञानिक परीक्षाओं की व्याख्या और उसके निष्कर्षों में भरोसेमंद कड़ी कमजोर रही।
अभियोजन द्वारा प्रस्तुत परिस्थित्य प्रमाणों (circumstantial evidence) की वह “अविच्छिन्न कड़ी” टूटती नज़र आई, जिससे दोष सिद्ध करना संभव नहीं रहा। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि कुछ सबूतों के लगे-बने संदेह (possible evidence planting / lapse in investigation) का जो inference बनता है, वह चिंताजनक है।
प्रभावित पक्षों की प्रतिक्रिया
पीड़िता के परिवार और पिथौरागढ़ शहर में आम लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर गहरा आक्रोश और निराशा जाहिर की। पीड़िता के परिजनों ने निर्णय को “अप्रत्याशित” और “दिल तोड़ देने वाला” बताया। स्थानीय स्तर पर अचानक यह खबर फैलते ही लोग सड़कों पर उतर आए और न्याय की मांग करते दिखे।
कानून-विशेषज्ञ और मानवाधिकार समूहों ने कहा है कि यह फैसला साबित करता है कि खासकर शिशु/बाल दुष्कर्म और हत्या के मामलों में उचित, वैज्ञानिक और निष्पक्ष जांच कितनी आवश्यक है — क्योंकि कमजोर या फिसलती जांच न्याय प्रक्रिया को गड़बड़ा सकती है। वहीं कुछ न्यायविदों ने अदालत के उस पक्ष को भी सराहा जो मृत्यु-दंड की देनदारी तय करने में ऊंची सतर्कता की बात करता है।
जांच-प्रशासन पर उठते सवाल
कई लेखों और विशेषज्ञों ने मामले की मूल पुलिस जांच और साक्ष्य इकट्ठा करने के तरीके पर गंभीर सवाल उठाए हैं — जैसे कि किस तरह कुछ प्रयोगशाला नतीजों की व्याख्या हुई, क्या गवाहों से मान्य तरीके से बयान लिए गए, और क्या सीन-ऑफ-क्राइम प्रक्रियाओं का सही पालन हुआ। सुप्रीम कोर्ट के तर्कों ने इन्हीं पहलुओं की तरफ न्यायपालिका का ध्यान खींचा।
अब आगे क्या हो सकता है?
सार्वजनिक गुस्से और पीड़ित परिवार की नाराज़गी के मद्देनजर स्थानीय प्रशासन और पुलिस की जवाबदेही पर भारी दबाव रहेगा; राज्य सरकार/प्रोसीक्यूशन यह विचार कर सकती है कि क्या पाक्षिक/अन्य कानूनी उपाय (उदाहरण: पुनर्विचार याचिका, बेलागुहार विशिष्ट अपील पथ आदि) अपनाए जाएँ — परन्तु इस पर कोई निश्चित अनुमान अभी नहीं लगाया गया है।
निष्कर्ष
यह फैसला न्यायालय-प्रणाली, साक्ष्य-प्रबन्ध और जांच की गुणवत्ता से जुड़े गहरे सवालों को फिर से उठाता है। जहाँ एक ओर सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि मौत की सजा जैसे अंतिम परिणाम के लिए कठोर और अविचलित सबूत चाहिए, वहीं पीड़ित परिवार और समाज के एक बड़े हिस्से को लगता है कि आरोपी को रिहा कर देना न्याय की कमी जैसा प्रतीत होता है। इस फैसले ने न केवल उस व्यक्तिगत दुख को फिर से उभारा है, बल्कि पूरे सिस्टम के सुधार की भी मांग तेज कर दी है।